१८५७ का आन्दोलन
– अयोध्याप्रसाद गोयलीय –
एक रोज़ मैं दरीबे से जा रहा था । क्या देखता हूँ कि एक फौज तिलंगों की आ रही है । मैं भी देख कर गुलाब गंधी की दुकानके सामने खड़ा हो गया । आगे – आगे बैंड वाले थे । पीछे कोई ५०–६० सवार थे । उनके घोड़े क्या थे, धोबी के गधे मालूम होते थे। बीच में सवार थे मगर गठारिओं की कसरत से जिस्म का थोड़ा सो हिस्सा ही दिखाई देता था । यह गठारिआं क्याथीं ? दिल्ली की लूट , जिस भी आदमी को खाता पीता देखा, उसके कपड़े तक उतरवा लिए, जिस रुपये –पैसेवाले को देखा, उस के घर पर जा कर ढही दे दी और कहा, चल हमारे साथ किले, तू अंग्रजों से मिला हुआ है, जब तक कुछ रखवा न लिया, उसका पिंड न छोड़ा । अगर दिल्ली के चरों तरफ़ अंग्रेज़ी फौज का मुहासरा न होता तो शरीफ लोग कभी के दिल्ली से निकल गए होते।
गरज खुदाई फौजदारों का यह लश्कर गुल मचाता, दीन–दीन के नारे लगाता मेरे सामने से गुज़रा । इस जमगफी (भीड़) के बीचों बीच दो मिआं थे । यह कौन थे ? आली जनाब बहादुर खां साहब सिपहसलार । लिबास से बजाये सिपहसलार के दूल्हा मालूम होते थे । जड़ाऊ ज़ेवर में लदे थे । पहनते वक्त शायद यह भी मालूम करने की तकलीफ़ गवारा न की गयी थी कि कौन–सा मरदाना ज़ेवर है और कौन–सा जनाना । जैसे ख़ुद ज़ेवर से आरास्त थे, उसी तरह उनका घोड़ा भी ज़ेवर से लदा हुआ था । माश के आटे की तरह ऐठे जाते थे । मालूम होता था खुदाई अब इनके हाथ आ गयी है । गुलाबगंधी ने जो इन लुटेरों को आते देखा तो चुपके से दुकान बन्द कर ली और अन्दर दरवाजे से झांकता रहा ।
खुदा मालूम क्या इत्तेफ़ाक़ हुआ कि बहादुर खान का घोड़ा एन उसकी दूकान के सामने आकर रुका । बहादुर खां ने इधर-उधर गर्दन फेर के पूछा यह किसकी दूकान है । उनके एड़ी कांग ने अर्ज़ की – “गुलाबगंधी की “। फ़रमाया “इस बदमाश को यह ख़बर नहीं थी कि मां बदौलत इधर से गुज़र रहे हैं । बन्द करने के क्या मायने ? अभी खुलवाओ “।
ख़बर नहीं इस हुक्मे–कज़ा (मृत्यु संदेश) का बेचारे लालाजी पर क्या असर हुआ ? हमने तो यह देखा कि एक सिपाही ने तलवार का दस्ता किवाड़ पर मार कर कहा “दरवाज़ा खोलो ।” और जिस तरह “सम–सम” खुल जा अल्फाज़ से अली बाबा के किस्से में चोरों के खजाने का दरवाज़ा खुलता था । उसी तरह इस हुक्म से गुलाबगंधी की दूकान खुल गयी । दरवाज़े के बीचों बीच लाला जी हांफ़ते हांफते हाथ जोड़े खड़े थे । कुछ बोलना चाहते थे, मगर जबान यारी न देती थी । उस वक्त बहादुर खां कुछ खुश थे । किसी मोटी आसामी को मार कर आए होंगे । कहने लगे तुम्हारी ही दूकान से बादशाह के यहाँ इत्र जाता है ? लाला जी ने बड़ी ज़ोर से गर्दन को टूटी हुई गुडिया के तरह झटका दिया । हुक्म हुआ कि जो इत्र बेहतर से बेह्तर हो, वोह हाजिर करो ।
वे लडखडाते हुए अन्दर गए और दो कंटर इत्र से भरे हुए हाज़िर किए । मालूम नहीं बीस रुपये तोले का इत्र था या तीस रुपए तोले का । बहादुर खां ने दोनों कंटर लिए । काग निकालने की तकलीफ कौन गवारा करता । एक की गर्दन दूसरे सेटकरा दी दोनों गर्दनें टूट गयीं । इत्र सूंघा कुछ पसंद आया एक कंटर घोड़े की आयाल पर (गर्दन के बालों पर) उलट दिया और दूसरा दुम पर । कंटर फैंक कर हुक्म दिया गया – ‘फार्वदी‘ । इस तरह बेचारे गुलाबगंधी का सैंकडों रुपयों का नुकसान करके यह हिंदुस्तानिओं को आजादी दिलाने वाले चल दिए ।
This entry was posted on Friday, August 8th, 2008 at 11:44 PM and is filed under Uncategorized. You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.